द्विज (Dvija)
‘द्विज’ का अर्थ है दो बार जन्म लेना (अर्थात् दोजन्मा)।
द्विज शब्द संस्कृत के ‘द्वि’+‘ज’ से बना है। ‘द्वि’ का अर्थ है दो, तथा ‘ज’ (अर्थात् जायते) का अर्थ है जन्म लेना। अर्थात् जो व्यक्ति दो बार जन्म लेता है वह ‘द्विज ’(दोजन्मा) कहलाता है।
प्राचीन काल में द्विज शब्द तीन वर्णों — ब्राह्मण, क्षत्रिय एवं वैश्य से संबंधित था, परन्तु बाद में आगे चलकर यह सिर्फ ब्राह्मण वर्ण तक ही सीमित रह गया।
‘द्विज’ शब्द की उत्पत्ति का इतिहास जानें बिना इससे संबंधित ज्ञान अपूर्ण तथा भ्रामक रह जाएगा। तो चलिए इसके इतिहास को जाने।
इतिहास
ऋग्वैदिक काल केे प्रथम चरण में समाज तीन वर्णों (वर्गों) में विभाजित था, ये तीनों वर्ण थे ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य। उस समय शूद्र वर्ण की उत्पत्ति नहीं हुुई थी। परन्तु बाद में, ऋग्वेद के दसवें मंडल पुरुष सुक्त में चार वर्णों (चतुर्वर्ण) की संकल्पना की गई तथा पहले से ही विद्यमान तीनोों वर्णों में एक और वर्ण ‘शूद्र’ को जोड़ाा गया । इसके साथ ही समाज अब चार वर्णों बंट गयाा जोो क्रमशः इस प्रकार था — ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र। क्रमशः इनके कार्यों काा भी निर्धारण किया गया।
- चारों वर्णों में से ब्राह्मण वर्ण को सबसे ऊपर (सर्वश्रेष्ठ) माना गया। इनका निर्धारित कार्य था यज्ञ करना तथा शिक्षा देना।
- ब्राह्मण के बाद दूसरा सर्वश्रेष्ठ वर्ण था क्षत्रिय। इनका कार्य था युद्ध लड़ना।
- तीसरे नंबर पर वैश्य था। इनका काम था कृषि-कार्य एवं व्यापार-व्यवसाय करना तथा राज्य को कर (tax) देना।
- सबसे निचले पायदान पर शूद्र था। इनका कार्य था अपने से ऊपर के तीनों वर्णों (ब्राह्मण, क्षत्रिय एवं वैश्य) की सेवा करना।
अब आइए यह जाने कि ‘द्विज’ अवधारणा की उत्पत्ति कैसे हुई।
द्विज अवधारणा की उत्पत्ति
जैसे कि पहले ही बताया जा चुका है ‘द्विज’ शब्द का अर्थ है- दोजन्मा (अर्थात् दो बार जन्म लेना)।
तो आखिर! यहां द्विज (दो जन्मा) होने का आशय क्या है ?
- हर इंसान का जन्म मां के गर्भ से होता है। यहां मां के गर्भ से होने वाले जन्म को इंसान का पहला जन्म माना गया है। ..... तथा दूसरा जन्म उसे माना गया जब व्यक्ति का उपनयन संस्कार (यज्ञोपवीत) होता है।
- उपनयन का अभिप्राय वेद (Vedas) के अध्ययन से है। वैदिक काल (प्राचीन काल) में गुरुकुल की परंपरा थी। उस समय 8 वर्षीय बालकों का उपनयन संस्कार कराकर विशेष अध्ययन हेतु गुरुकुल में भेज दिया जाता था। इस प्रकार, गुरुकुल जाने तथा वेदों का अध्ययन करने की परंपरा ही उपनयन संस्कार कहलाता है।
- इस प्रकार, उपनयन अथवा यज्ञोपवीत संस्कार का सीधा संबंध शिक्षा (education) से है। तथा द्विज शब्द का संबंध भी शिक्षा से ही है।
- उत्तर-ऋग्वैदिक काल (Post-Rigvedic Period) में उपनयन संस्कार तीन वर्णों — ब्राह्मण, क्षत्रिय एवं वैश्य तक ही सीमित था। उपनयन संस्कार का अधिकार शूद्रों को नहीं दिया गया था। ज्ञातव्य कि उपनयन संस्कार शिक्षा-शिक्षण से संबंधित था, अतः शिक्षा का अधिकार शूद्रों को नहीं था। ... इस प्रकार, शूद्रों को द्विज होने का अधिकार नहीं था।
- परन्तु, गुप्त काल (Gupta Period) तक आते-आते द्विज शब्द का संबंध सिर्फ ब्राह्मण वर्ण से रह गया। अर्थात् क्षत्रिय एवं वैश्य को भी द्विज की श्रेणी से बाहर कर दिया गया।
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